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एक उपेक्षित राष्ट्रमहानायक,श्रावस्ती सम्राट भर क्षत्रिय सुहेलदेव राय आधुनिक भारतीय इतिहासकारों को भारतीय इतिहास के इस कटु सत्य को स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए कि प्राचीन भारतीय इतिहासकारों (जिनमें पुराणकार प्रमुख हैं-यद्यपि पुराण इतिहास नहीं हैं) ने वर्ण व्यवस्था से प्रभावित होकर इतिहास लेखन किया। प्राचीन भारतीय समाज का विभाजन धर्म के आधार पर मूलतः दो भागों में किया गया ,पहला वैष्णव एवं दूसरा शैव। वैष्णव वर्ग सामन्तशाही का पोषक रहा और शैव समता मूलकसमाज का पक्षधर रहा। विष्णु ने अपने अनुयायियों में वर्ण व्यवस्था को खास तरजीह दी और शिव ने पिछड़े, आदिवासी, अछूत लोगों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने में यकीन किया। अधिकांश पुराणकार वैष्णव पंथी होने के कारण वैष्णव में से नायकों का चुनाव किया और शैवों को प्रतिद्वन्दी यहां तक कि दैत्य, दानव, राक्षस आदि माना। भारतीय इतिहास की इसी बिडम्बना ने ऐसे महानायकों जो अवैष्णव थे को इतिहास में या तो सम्मिलित नहीं किया या फिर उनको उतना महत्व नहीं दिया जितना कि दिया जाना चाहिए था। हर क्षेत्र में ऐसा किया गया, फलतः भारतीय इतिहास के स्वर्णिम...
भर और संविधान १९३५ ई. मे भारत सरकार ने " गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट ऑफ़ १९३५ " पास किया! ईस एक्ट के मे ४२९ जातियों का समावेश किया गया ! सवेक्षण से पता चला "राजभार", "राज्झार", "रजवार","राजवार" और भर एक ही जाति के अलग अलग नाम है ! उत्तरप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, बंगाल, मध्यप्रदेश और बेरार मे राज्भारो कि उपस्थिति बताई गयी है ! जिनकी जनसँख्या सर्वेक्षण के अनुसार ६,३०,७०८ थी ! १९३१ ई. कि जनगणना रिपोर्ट के अनुसार यह गणना ठीक बैठती है ! इसमें भरो कि सम्पूर्ण जनसँख्या ५,२७६,१७४ बताई गयी है ! भरत के विभिन्न प्रदेशों मे भर/ राजभर जाति के लोग पाए जाते है ! पर ईस जाति कि जनसँख्या का घनत्व पूर्वांचल के जिलो मे अधिक है !ईस जाति के समग्र विकास के लिए भरत सरकार से समय समय पर सरकारी नौकरियो मे आरक्षण कि मांग कि जाति रही है ! सरकारी दस्तावेजो के अनुसार भर/राजभर को अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के समकक्ष तो मान लिया गया है पर उस सूचि मे इस जाति को अभी तक समाहित नहीं किया गया है ! उत्तरप्रदेश सरकार ने भर/राजभर जाति को अनुसूचित जनजाति मे शामिल करने का...
नाग्भारशिव जाति हम देख चुके है कि सुदास भरत जाति से जुड़े थे जो कालांतर मे जाकर भर जाति कहलाई ! दिवोदास और उसके पुत्र सुदास दोनों के नाम के अंत मे "दास" लगा हुआ है जो ये दर्शाता है वो दास या नाग वंश से जुड़े हुए थे ! प्रत्येक नागो के लिए दास नाम उनकी प्रजाति का नाम बन गया था ! नाग वंश का वर्णन वेदों मे और पुरानो मे भरा पड़ा है ! नागो के साथ शिव शब्द कैसे जुड़ गया इसका एक लम्बा इतिहास है ! भरत वंश के लोग शिव कि पूजा किया करते थे शिवलिंग को धारण करने के कारण नाग, भारशिव कहलाने लगे ! यही भारशिव वंश के लोग भर नाम से प्रशिद्ध हुए ! भर शब्द कि व्याख्या भारशिव के अर्थ मे करते हुए डॉ . काशीप्रसाद जयसवाल कहते है कि विन्ध्याचल क्षेत्र का भरहुत , भरदेवल, नागोड़ और नागदेय भरो को भारशिव साबित करने का अच्छा प्रमाण है! मिर्जापुर , इलाहबाद तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र भरो के प्रदेश रह चुके है ! इस तरह भर का संस्कृत नाम भारशिव है ! इस युग को कुषाण -युग कहा जाता है ! जब भर रायबरेली के शासक थे (७९०- ९९० AD ) भर राजसता स्थापित करने के महत्वाकांक्षी थे ! भारशिव एक जाति का नाम नहीं बल्कि उनकी उ...
जाति एक नाम भर/राजभर जाति के कई उपनाम है ! ये अनेक जिलो मे अनेक नामो से पुकारे जाते है ! ऐसे ही कई उपनाम जैसे भोर, बोर , भोवरी, बैरिया और भैरिया, बरिया , बैरी, भैराय और अन्य उपनामों से जाने जाते है ! भर जाति राजभर , भरत , भरपतवा, राज्ज्भर और राजवर नामो से भी जाने जाते है ! मिक्ष्रण जातियों के इतिहास का अध्ययन करना जटिल पहेली है ! आर्यवादी लेखको ने चार वर्णों का निर्माण किया था ! पर स्त्रियों तथा पुरुषो के परस्पर संयोग से अनेक जातियां , उपजातीय बनती चली गयी ! जिसे वर्णशंकर जातिया कहते है ! भरो या राज्भारो का कही नामकरण इस वर्ण शंकरता पद्धति मे नहीं आया है ! वे आर्य जाति निर्धारण व्यवस्था से सर्वदा अलग थे ! अंतिम जनगणना रिपोर्ट १९३१ ई. के अनुसार भरो को तिन मुख्य उपजातीय गिनाए गए - भारद्वाज, कनौजिया और राजभर ! कनौज तथा कानपूर के आसपास के रहने वाले कनौजिया कहलाते थे ! भर या राजभर जाति की वंशावली वृक्ष भारतीय भू-भाग पर आज भी मौजूद है ! अपने स्वजनों की खोज मे सबसे पहले मै आपको मध्य भारत ले चलता हूँ ! यहाँ पाई जाने वाली भरिया जाति का सम्बन्ध भी भर/राजभर से है ! उत्तर प्रदेश , बिहार तथा...
अंबे देवी सुहलदेव भर राजा बिहारिमल के पुत्र थे ! इनकी माता का नाम जयलक्ष्मी था ! सुहलदेव राजभर के तिन भाई और एक बहन थी बिहारिमल के संतानों का विवरण इस प्रकार है ! १. सुहलदेव २. रुद्र्मल ३. बागमल ४. सहारमल या भूराय्देव तथा पुत्री अंबे देवी ! ऐसा मान जाता है की सैयद सलार ने राजकुमारी अंबे देवी का अपहरण ४२३ हिजरी (१०३४ ई.) मे कर लिया था ! जिसके कारण सैयद सलार तथा राजा सुहलदेव के बिच घमासान युद्ध हुआ था ! इन बातो का उल्लेख मौला मुहम्मद गजनवी की किताब "तवारी ख ई - महमूदी" तथा अब्दुर्रहमान चिस्ती की किताब " मिरात- ई- मसौदी" मे मिल जाति है ! अगर आप बलदेव प्रसाद गोरखा की पुस्तक "मंथनगीता" पड़ेंगे तो उसमे इस घटना का बहुत ही अच्छे से वर्णन किया है ! उसके कुछ पंक्ति मे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ !  बजा नगाड़ा गढ़ भराईच,  सिगरी पल्टन भई तयार ।  गोला-गोला तोप तमन्चा,  सब हथियार सजे सरदार ।                          दुसरे डंका के बाजत,     ...
भर जाति के नाम पर भारत का नामकरण किसी भी स्थान के नामकरण के पीछे कोई न कोई ठोस आधार अवश्य होता है जिसके आधार पर मनुष्य किसी भी स्थान, गांव, शहर. प्रदेश व देश का नामकरण करता आया है। धीरे धीरे नियत नाम जन मानस में व्यापक रूप से प्रचारित प्रसारित हो जाता है। कालान्तर में उन नामों में बोलचाल की भाषा या भाषा अशुद्धि के कारण धार्मिक सोच के अनुरूप सुधार भी होता रहा है।  1-जैसे मेरे बगल के गांव परशुरामपुर को ही लिया जाये। मेरे बचपन में इस गांव को पसरमापुर कहते थे। आज भी कुछ बुजुर्ग बातचीत में पसरमापुर कह ही देते हैं। परन्तु गत 30-35 वर्षो से रामचरित मानस में चर्चित यमदग्नि के पुत्र परषुराम के नाम पर धार्मिक सोच व भाषा शुद्धि के फलस्वरूप पसरमापुर को परशुरामपुर कहा जाने लगा। पत्राचार में आते जाते अब सरकारी रिकार्ड में भी परशुरामपुर हो गया है।  2- इसी प्रकार राजा लाखन भर के द्वारा बसाया गया, लाखनपुरी से बने लखनऊ नगर को धार्मिक सोच के कारण रामायण के राम के भ्राता लक्ष्मण के द्वारा बसाया लिखा गया। जबकि, लक्ष्मण ने राम की सेवा के अतिरिक्त कभी शासन किया नहीं, फिर लक्ष्मण के द्वारा लखन...
महाराज वीरसेन भारशिव मथुरा नरेश महाराज वीरसेन भारशिव शिव के परम भक्‍त थे । वे स्‍वयं शिवस्‍वरूप थे, इसीलिए उनकी गणना एकादश रुद्रों में की गई एवं महापुराणों में उन्‍हें वीरभद्र के नाम से जाना गया । महाराज वीरसेन भारशिव शिवलिंग धारण करते थे । वे परमेश्‍वर शिव का अपमान नहीं सह सकते थे । जहां भी यज्ञादि शुभ कार्यों में महेश्‍वर शिव की अवहेलना की गई, वहां महाराज वीरसेन भारशिव ने अथवा उनके सेवकों ने उस यज्ञ का विध्‍वंश किया । प्रजापति दक्ष के यज्ञ का विध्‍वंश किया जाना इसका प्रमाण है । उनकी इस प्रवृत्ति के कारण वैष्‍णव भारशिवों से गहरी शत्रुता रखने लगे ,और भारशिवों के विनाश की योजना बनाने लगे । वैष्‍णवों को जब भी अवसर मिला छल कपट के बल पर भारशिवों को नेस्‍तनाबूंद करने का प्रयास  करते रहे । इतना ही नहीं अपितु धरती काभार हटाने अर्था धरती से भारशिवों का विनाश करने के लिए विष्‍णु का आवाहन करते रहे ।           शिवस्‍वरूप भगवान वीरसेन भारशिव चाहते थे कि सम्‍पूर्ण भारतीय समाज महेश्‍वर शिव को आत्‍मसात करे ,क्‍योंकि शिव ही एकमात्र ऐसे ...